श्री आद्या शक्तिपीठ – एक परिचय
भारतवर्ष शक्ति की उपासना का केन्द्र है। धरती पर अन्यत्र कहीं भी भारत जैसी उपासना नहीं होती है। यदि किसी देश में होती भी है तो इतनी प्रबल नहीं है। परन्तु दुःखद बात यह है कि भारत में कहीं भी शक्ति की उपासना का ऐसा स्थान या केन्द्र नहीं बना, जहाँ साधक वर्ग को विश्वसनीय परम्परा एवं कुल के अनुसार साधना की पद्धति मिले और जिससे वे विशुद्ध साधक बनें और परम्परा को आगे चलायें। यही मनोकामना लेकर मैंने विचार किया कि भारतवर्ष में चारों दिशाओं में शक्ति की उपासना के केन्द्र स्थापित किये जांये जहाँ इच्छुक साधकों को मार्गदर्शन मिले।
दक्षिण भारत में अगस्त्य एवं लोपामुद्रा की काडी विद्या प्रचलित है, जिसे केरल परम्परा के नाम से भी जाना जाता है। इसकी उपासना के कई केन्द्र हैं। इसी केरल परम्परा के नाम से साधकों को कुल देकर परम्परा दी जाती है, जिससे साधक साधना करते हैं। केरल में काडी विद्या के पीठ व मठ हैं, जहाँ इन विद्याओं को सिखाया जाता है तथा साधना इत्यादि भी कराई जाती है। श्री आदिगुरु शंकराचार्य का श्रृंगेरी मठ भी दक्षिण भारत में है, जिसे शारदा मठ के नाम से भी जाना जाता है। वहाँ वेदों के अनुसार रक्तवर्ण आद्या अर्थात् ‘‘श्री‘‘ की उपासना की जाती है।
मैं अपने जीवन में कई बार इन साधकों से मिली एवं चर्चा की। मैंने उनसे विचार विमर्श करके पाया कि वहाँ कुछ अधूरापन है, जिसके बारे में मुझे कुछ कहना ही नहीं है, क्योंकि वह उनकी अपनी परम्परा है। वहीं पर साडी व काडी विद्या का भेद है। कश्मीरी कौलाचार्यों के अनुसार साडी विद्या ही पूर्ण विद्या है। इस वर्ग के साधकगण पूर्ण चैतन्य हैं। वे अपने आप को वामाचार्य या कौलाचार्य कहते हैं तथा वे अपने कुल व परम्परा के अनुसार ही साधना करते हैं। अति गुह्य साडी विद्या के साधक अपने आप को अलोप करके रहना पसन्द करते हैं और रहते भी हैं। बंगाल, बिहार एवं उत्तर भारत में इस वर्ग के साधक बहुत ही कम संख्या में होते हैं। इसी कारण दक्षिण भारत के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं साडी विद्या का कोई पीठ व मठ स्थापित नहीं है, जिसके कारण इस विद्या का ज्ञान उस वर्ग विशेष में ही सिमटकर रह गया है। दिन प्रतिदिन इसके ज्ञाता कम होते जा रहे हैं।
मैंने अनुभव किया कि कुछ साधकवर्ग ने साडी व काडी विद्या को मिलाकर खिचड़ी बना दिया है, जिनसे बात करने पर निराशा ही हाथ लगती है। क्या आने वाले काल में ‘आद्या‘, ‘श्री‘ एवं ‘तारा‘ के साधक न के बराबर हो जायेंगे? क्या इन कुलों में कोई बचेगा ही नहीं? जो परम्परागत साधक बचे हैं, उन्हें सबके सम्मुख आना चाहिए और इन प्रथाओं व कुलों की रक्षा करनी चाहिए। यह मनुष्य का कार्य है। मैं जानती हूँ कि ज्ञानगंज की भगवान भास्कर की शक्ति उपासना पद्धति को कभी भी कोई समाप्त नहीं कर सकता है। वे लोग सर्वदा चैतन्य रहते हैं और अपने साधकों को तैयार करते रहते हैं। यह सत्य जानते हुए मंैने मन में एक कामना की है कि भारतवर्ष की चारों दिशाओं में शक्ति की उपासना के चार मठों का निर्माण हो, जहाँ कम से कम इच्छुक साधकों को उनका मार्ग मिले।
भारतवर्ष में हर चार पग पर शक्ति का एक मन्दिर मिलता है, देवी दर्शन मिलता है। कहीं काली मन्दिर, कहीं दुर्गा मन्दिर तो कहीं कोई अन्य शक्ति मन्दिर मिलता है। परन्तु इन शक्तियों की उपासना या इनकी साधना का कोई केन्द्र या मठ नहीं है। इस कारण पुराणों को केन्द्रित कर, पुराणों को भित्ति करके जो भी पूजा पद्धतियां इत्यादि उपलब्ध हैं वह पर्याप्त नहीं हैं क्योंकि शक्ति की उपासना कुल या परम्परा के अनुसार ही होनी चाहिए। विद्याओं (शक्तियों) को कुल के अनुसार विभाजित किया गया है और इनकी उपासना कुल एवं परम्परानुसार करनी चाहिए।
दस महाविद्या में काली प्रथम विद्या है। दस महाविद्याओं को दो कुलों में विभाजित किया गया है- ‘आद्या’ एवं ‘श्री’। कृष्णवर्ण आद्या को ‘काली कुल’ कहा जाता है एवं रक्तवर्ण आद्या को ‘षोडशी’ अर्थात ‘श्रीकुल’ कहा जाता है। इन दो कुलों के मध्य में एक और कुल है, जिसे ‘ताराकुल’ के नाम से जाना जाता है। ताराकुल आद्याकुल से सम्बद्ध होते हुए भी तीसरी धारा है क्योंकि भगवान भास्कर की इष्ट श्री तारा माँ हैं। जो भी साधक सूर्य कुल से सम्बन्ध रखते हैं उनका कुल ‘ताराकुल’ है। इन कुलों के बारे में इस पुस्तक के प्रथम भाग में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, जो अध्ययन योग्य है। इन्हीं कुलों के अधीन होकर एवं सद्गुरु की कृपा पाकर जिस इच्छुक साधक वर्ग ने साधना की है या करते हैं वे निश्चय ही साधना लाभ करते हैं।
यदि साधक वर्ग को विधिवत् अध्ययन, साधना, अर्चन कराया जाता तो शक्ति वर्ग में एक परम्परा हो सकती थी। आज घर-घर में पूजा तो होती है परन्तु श्री गुरुओं के मुख से मंत्र उपदिष्ट होने के बाद जो थोड़ी बहुत पूजा होती है वह पर्याप्त नहीं है; वह तो नियम मात्र है, जो गृहस्थ साधक के लिए तो ठीक है परन्तु जो साधक वर्ग आगे जाना चाहते हैं, उनका हाथ पकड़ने वाला कोई नहीं है। शक्ति साधक परम्परा में जो भी अल्प साधक वर्ग बचे हैं उनमें जिज्ञासु साधक भी साधना की सम्पन्नता से उपादिष्ट नहीं हैं। मैंने देखा है कि इसी कारण ये साधक वर्ग इधर-उधर भटकते रहते हैं। बड़े दुःख की बात है कि जो साधक वर्ग जिन गुरुओं के पास साधन सीख रहे थे या अनुसरण कर रहे थे, वे अतृप्त होकर छटपटाते हैं एवं दुःखित होकर अपने कुल एवं गुरु को त्यागकर अन्य गुरु के सान्निध्य में उपस्थित होकर उनसे पूर्णता की आस रखते हैं किन्तु दुर्भाग्य यहाँ भी उनका पीछा नहीं छोड़ता; कुछ समय बाद वहाँ भी उन्हें अपूर्णता ही मिलती है। इस स्थिति में कई साधक भटक-भटक कर अपने साधनात्मक जीवन को समाप्त कर देते हैं।
बड़ी ही दुःखद बात यह है कि हमारे भारतवर्ष में ऐसा हो रहा है, जहाँ का संस्कार और संस्कृति परिपूर्ण है। आशुतोष भगवान शिव एवं श्री विष्णु ने सम्पूर्ण ज्ञान वेद एवं आगम में दिया और बाद में ऋषि-मुनियों ने अपनी विद्या से उन्हें और सुन्दर करके लिखित रूप में प्रस्तुत किया। मुझे लगता है कि यह लिखित रूप में ही रह गया। क्या समर्थ गुरुओं की कमी हो गयी या समर्थ गुरुओं एवं ऋषि मुनियों ने मनुष्यों से अपनी दृष्टि फेर ली! नहीं यह सत्य नहीं है क्योंकि महाप्रकृति में आशुतोष भगवान शिव एवं श्री विष्णु की बतायी पद्धति एवं ऋषि मुनियों की तपस्या मानव जाति की धरोहर है और साधना का पथ ही मोक्षकारी है।
आत्मा जब शुद्धावस्था में शरीर की प्राप्ति करती है तो उसके प्राण की गति ऊध्र्वमुखी होना चाहिए। कोई कहता है मैं वैष्णव हूँ, कोई कहता है मैं शाक्त हूँ पर यह तो मात्र सत्य तक पहुँचने का मार्ग है। जैसे दो नेत्र खोलकर मनुष्य जगत को पूर्ण रूप में देखता है। उसका तीसरा नेत्र संज्ञा अर्थात् चैतन्य जब वृहदता का अनुभव कर लेता है तब वे सर्वव्यापक बन जाते हैं तब उसमें दो नहीं बचता है कोई भेद नहीं बचता है। वही तीसरा नेत्र अपने मोक्ष के द्वार को ढूँढता है। इस मोक्ष कामना की जानकारी लेकर श्री गुरु उस मोक्षकामी को मार्गदर्शन कराकर अन्तर की शक्ति को संचालित कराते हैं ताकि साधक में गति बनी रहे। सद्गुरु की यही अनुकम्पा साधक वर्ग के लिए कृपा है।
मैंने अपने जीवन में बहुत से साधकों को कष्ट पाते, रोते बिलखते देखा। मेरी अन्तरात्मा रो उठती है। मैं सोचती हूँ मैं इनके लिए क्या कर सकती हूँ, मेरा मन रो पड़ता है। मेरा जन्म गुरु इच्छा पूर्ण करने के लिए ही हुआ है मेरी अपनी कोई इच्छा न थी, न है और न होगी। फिर भी मेरा मन करता है कि मैं ऐसे साधकों के लिए कुछ करूँ- यह भी गुरु की ही इच्छा है। मैंने निश्चय किया कि भारतवर्ष में चारों दिशाओं में शक्ति की उपासना के चार केन्द्र बनें। यह मात्र भाव है, बाकी गुरु इच्छा। उनके चाहने से ही सबकुछ सम्भव होगा। इसी इच्छा से मैंने भारत के चार प्रान्तों से साधकों को ढूँढा परन्तु इनमें कोई ऐसा साधक नहीं मिला, परन्तु मेरा प्रयास अभी चल रहा है। मेरी इच्छा है कि मुझे भारतवर्ष के चार प्रान्तों से चार ही साधक मिलें, जिन्हें मैं शक्ति की उपासना के लिए तैयार करूँ और चार दिशाओं में कुल एवं परम्परा के अनुसार संचालित चार मठों की स्थापना करूं, जिससे आने वाले काल में जो भी इक्के-दुक्के साधक शक्ति की उपासना करना चाहते हों उन्हें स्थान मिले।
महाआदि परमासीमाया परमा प्रकृति श्री आद्या महाकामेश्वरी से मेरी यही प्रार्थना है कि उनके साधक वर्ग को आप तक जाने का सटीक एवं शाश्वत मार्ग मिले। इसी अभिप्राय से श्री आद्या शक्तिपीठ की स्थापना ज्ञानगंज के महाज्ञानी गुरुओं की कल्पना है। ज्ञानगंज की शक्ति साधना की परंपरा का उद्देश्य है कि यह श्रृंखला निरंतर चलती रहे। इस धारा में आज जो साधक वर्ग हैं, उनका संक्षिप्त परिचय इस पुस्तक में है।
श्री श्री गुरु माँ माधवी माँ